Bhagavad Gita Saar - Hindi
पवित्र गीता जी का ज्ञान काल ने कहा - अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘
तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में मना है
(अध्याय 7 के श्लोक 15 - में कहा है कि त्रिगुण माया (जो रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी की पूजा तक सीमित हैं तथा इन्हीं से प्राप्त क्षणिक सुख) के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है एैसे असुर स्वभाव को धारण किए हुए नीच व्यक्ति दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझे नहीं भजते।)
श्राद्ध निकालना अर्थात् पितर पूजा, करना गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में मना है। गीता अध्याय 9 के श्लोक 25 में कहा है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने (पिण्ड दान करने) वाले भूतों को प्राप्त होते हैं
गीता ज्ञान दाता ब्रह्म का ईष्ट (पूज्य) देव पूर्णब्रह्म है। गीता ज्ञान दाता किसी और पूर्ण परमात्मा की बात करता है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 64 में कहा है कि एक सर्व गुप्त से गुप्त ज्ञान एक बार फिर सुन कि यही पूर्ण परमात्मा (जिसके विषय में अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है) मेरा पक्का पूज्य देव है अर्थात् मैं (ब्रह्म क्षर पुरुष) भी उसी की पूजा करता हूँ। यह तेरे हित में कहूँगा। (क्यांेकि यही जानकारी गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी दी है। जिसमें कहा है कि मैं उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ।
ब्रह्म (क्षर पुरुष) की साधना अनुत्तम (घटिया) है - गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी साधना अनुत्तम (घटिया) है। अनुत्तम का अर्थ घटिया होता है। अनुवादकों ने अति उत्तम क्यी है जो की गलत है।
गीता ज्ञान दाता नाशवान है - गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5 में कहा है कि मैं नाशवान हूँ। जन्म मृत्यु मेरी तथा तेरी सदा होती रहेगी।
व्रत रखना गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में मना है। लिखा है कि हे अर्जुन ! योग (भक्ति) न तो बिल्कुल न खाने वाले (व्रत रखने वाले) का सिद्ध होता है, ... अर्थात् व्रत रखना मना है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में गीता ज्ञान दाता अपने से अन्य किसी और परमात्मा की बात कर रहा है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता अर्जुन को किसी और की शरण में जाने को कह रहा है। इस श्लोक में व्रज का अर्थ गलत किया है। व्रज का अर्थ जाना होता है, सब ने आना किया है।
गीता में कहीं भी हरी ॐ, ॐ भगव्ते वसुदेव आए नमः, हरी ॐ तत सत, राम राम, हरे हरे, ॐ शांति, मंत्र का कोई ज़िक्र नहीं है। ये सब मनमुखी मंत्र हैं।
गीता अध्याय 16, श्लोक 23, 24 में लिखा है की शस्त्र विरुद्ध साधना करने वाले को न सुख की प्राप्ति होती है, न सिद्धि, न गति होती है।
गीता ज्ञान दाता अध्याय 8, श्लोक 13 में कह रहा है कि मेरा ॐ मंत्र है। अध्याय 17, श्लोक 23 में बता रहा है कि उस परमात्मा कि भक्ति का मंत्र ॐ तत सत है।
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