Summary of Bhagavad Gita
The Bhagavad Gita, a timeless Hindu scripture, is a profound philosophical and spiritual text embedded within the epic Mahabharata. It presents a dialogue between Lord Krishna and Prince Arjuna, a warrior torn between his moral duty and personal desires. This divine discourse delves into the nature of reality, the purpose of life and the path to liberation. It summarises the gist of the 700 verses of Bhagavad Gita.
Chapter 2
- Chapter 2 verse 12 - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
- Chapter 2 verse 17 - नाशरहित तो तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत् दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।
Chapter 3
- Chapter 3 Verse 12 - क्योंकि उस यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट देव अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने से मिलने वाले प्रतिफल रूप भोगों को तुमको यज्ञों के द्वारा फले देवता इसका प्रतिफल देते रहेगें। उनके द्वारा दिये हुए भौतिक सुख को जो इनको बिना दिये अर्थात् यज्ञ दान आदि नहीं करते स्वयं ही खा जाते हैं, वह वास्तव में चोर हैं।
- Chapter 3 Verse 13 - यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले साधु यज्ञादि न करने से होने वाले सब पापोंसे बच जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पापको ही खाते हैं।
Chapter 4
- Chapter 4 verse 5 - हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता किंतु मैं जानता हूँ।
- Chapter 4 verse 9 - हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्वसे जान लेता है वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता किंतु जो मुझ काल को तत्व से नहीं जानते मुझे ही प्राप्त होता है।
- Chapter 4 verse 32 - इस प्रकार और भी बहुत तरहके शास्त्रअनुसार धार्मिक क्रियाऐं हैं उन सबको तू कर्मों के द्वारा होने वाली यज्ञों को जान इस प्रकार पूर्ण परमात्माके मुख कमल से पाँचवे वेद अर्थात् स्वसम वेद में विस्तारसे कहे गये हैं। जानकर पूर्ण मुक्त हो जायगा।
- Chapter 4 verse 34 - उस तत्वज्ञान को समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतों को भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे पूर्ण ब्रह्म को तत्व से जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।
Chapter 6
- Chapter 6 Verse 16 - भक्ति न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा न ही अत्यधिक खाने वाले की और न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की तथा न ही बहुत शयन करने वाले की तथा न ही हठ करके अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है अर्थात् उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि व्यर्थ है।
Chapter 7
- Chapter 7 Verse 12 - और भी जो सत्वगुण विष्णु जी से स्थिति भाव हैं और जो रजोगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति तथा तमोगुण शिव से संहार हैं उन सबको तू मेरे द्वारा सुनियोजित नियमानुसार ही होने वाले हैं ऐसा जान (तु) परंतु वास्तवमें उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।
- Chapter 7 Verse 13 - इन गुणोंके कार्यरूप सात्विक श्री विष्णु जी के प्रभाव से, राजस श्री ब्रह्मा जी के प्रभाव से और तामस श्री शिवजी के प्रभाव से तीनों प्रकारके भावोंसे यह सारा संसार - प्राणिसमुदाय मुझ काल के ही जाल में मोहित हो रहा है अर्थात् फंसा है इसलिए पूर्ण अविनाशीको नहीं जानता।
- Chapter 7 Verse 14 - क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्ध्भूत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंन्तर भजते हैं वे इस मायाका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् तीनों गुणों रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी से ऊपर उठ जाते हैं।
- Chapter 7 Verse 15 - मायाके द्वारा अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं।
- Chapter 7 Verse 16 - हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
- Chapter 7 Verse 17 - इनमें से जो ज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह श्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है |
- Chapter 7 Verse 18 - मेरे विचार में ये सभी ही ज्ञानी आत्मा उदार हैं परंतु वह मुझमें ही लीन आत्मा मेरी अति घटिया मुक्तिमें ही आश्रित हैं।
- Chapter 7 Verse 19 - बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्वज्ञानको प्राप्त मुझको भजता है वासुदेव अर्थात् सर्वव्यापक पूर्ण ब्रह्म ही सब कुछ है इस प्रकार जो यह जानता है वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
- Chapter 7 Verse 20 - उन-उन भोगोंकी कामनाद्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे लोग अपने स्वभावसे प्रेरित होकर उस उस अज्ञान रूप अंधकार वाले नियमके आश्रयसे अन्य देवताओंको भजते हैं अर्थात् पूजते हैं।
- Chapter 7 Verse 21 - जो-जो भक्त जिस-जिस देवताके स्वरूपको श्रद्धासे पूजना चाहता है, उस उस भक्तकी श्रद्धाको मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।
- Chapter 7 Verse 22 - वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवताका पूजन करता है और क्योंकि उस देवतासे मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगोंको प्राप्त करता है।
- Chapter 7 Verse 23 - परंतु उन अल्प बुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् होता है देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते है। और मतावलम्बी अर्थात् मेरे द्वारा बताए भक्ति मार्ग से भी मुझको प्राप्त होते हैं।
- Chapter 7 Verse 24 - बुद्धिहीन लोग मेरे अश्रेष्ठ अटल परम भावको न जानते हुए छिपे हुए अर्थात् परोक्ष मुझ कालको मनुष्य की तरह आकार में कृष्ण अवतार प्राप्त हुआ मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ।
- Chapter 7 Verse 25 - मैं योगमायासे छिपा हुआ सबके प्रत्यक्ष नहीं होता अर्थात् अदृश्य रहता हूँ इसलिये मुझ जन्म न लेने वाले अविनाशी अटल भावको यह अज्ञानी जनसमुदाय संसार नहीं जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप में आया समझता है।
- Chapter 7 Verse 29 - जो मेरे सम्पूर्ण अध्यात्मको तथा सम्पूर्ण कर्मको जानते हैं वे पुरुष उस ब्रह्मके आश्रित होकर जरा और मरणसे छूटनेके लिये यत्न करते हैं।
Chapter 8
- Chapter 8 verse 1 - हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नामसे क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?
- Chapter 8 verse 3 - गीता ज्ञान दाता ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नामसे कहा जाता है तथा जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो त्याग है वह ‘कर्म‘ नामसे कहा गया है।
- Chapter 8 verse 5 - जो अन्तकालमें भी मुझको ही सुमरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है वह शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संश्य नहीं है।
- Chapter 8 verse 6 - हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ शरीरका त्याग करता है उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भक्ति भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है।
- Chapter 8 verse 7 - इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा सुमरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा।
- Chapter 8 verse 8 - हे पार्थ! परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त परम दिव्य परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है।
- Chapter 8 verse 9 - कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप से प्रसिद्ध होता है वह अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्य-स्वरूप सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है। जो उस अज्ञानरूप अंधकारसे अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका सुमरण करता है।
- Chapter 8 verse 10 - वह भक्तियुक्त साधक अन्तकालमें नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मनसे अज्ञात दिव्यरूप परम भगवानको ही प्राप्त होता है।
- Chapter 8 verse 11 - 12 - see images
- Chapter 8 verse 13 - गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11-12 में जिस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम जाप में तीन अक्षर का जाप कहा है उस में मुझ ब्रह्म का तो यह ऊँ एक अक्षर है उच्चारण करते हुए स्मरन करने अर्थात् साधना करने का जो शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में स्मरण करता हुआ मर जाता है वह परम गति पूर्ण मोक्ष को प्राप्त होता है।
- Chapter 8 verse 16 - हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं परन्तु हे कुन्ती पुत्र जो यह नहीं जानते वे मुझे प्राप्त होकर भी फिर जन्मते हैं।
- Chapter 8 verse 17 - परब्रह्म का जो एक दिन है उसको एक हजार युग की अवधिवाला और रात्रिको भी एक हजार युगतककी अवधिवाली तत्वसे जानते हैं वे तत्वदर्शी संत दिन-रात्री के तत्वको जाननेवाले हैं।
- Chapter 8 verse 18 - सम्पूर्ण प्रत्यक्ष आकार में आया संसार परब्रह्म के दिन के प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् अदृश परब्रह्म से उत्पन्न होते हैं और रात्रि आने पर उस अदृश अर्थात् परोक्ष परब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।
- Chapter 8 verse 19 - हे पार्थ! वही यह प्राणी समुदाय उत्पन्न हो होकर संस्कार वश होकर रात्रिके प्रवेशकालमें लीन होता है और दिन के प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है।
- Chapter 8 verse 20 - परंतु उस अव्यक्त अर्थात् गुप्त परब्रह्म से भी अति परे दूसरा जो आदि अव्यक्त अर्थात् परोक्ष भाव है वह परम दिव्य पुरुष सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। (20)
- Chapter 8 verse 21 - अदृश अर्थात् परोक्ष अविनाशी इस नामसे कहा गया है अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को परमगति कहते हैं जिसे प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते वह लोक मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है।
- Chapter 8 verse 22 - हे पार्थ! जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वप्राणी हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह समस्त जगत् परिपूर्ण है वह श्रेष्ठ परमात्मा तो अनन्य भक्तिसे ही प्राप्त होने योग्य है।
Chapter 9
- Chapter 9 Verse 23 - हे अर्जुन! श्रद्धासे युक्त भी जो भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् शास्त्र विरूद्ध है।
- Chapter 9 Verse 25 - देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं और इसी तरह मतानुसार अर्थात् शास्त्रानुकुल पूजन करने वाले मेरे भक्त भी मुझे प्राप्त होते हैं।
- Chapter 9 Verse 34 - मेरे में स्थिर मन वाला मेरा शास्त्रानुकूल पूजक मतानुसार अर्थात् मेरे बताए अनुसार साधक बन मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मासे मेरी शरण होकर शास्त्रानुकूल साधनमें संलग्न होकर ही मुझ से लाभ प्राप्त करेगा।
Chapter 10
- Chapter 10 Verse 2 - मेरी उत्पतिको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदि कारण हूँ।
- Chapter 10 Verse 3 - जो विद्धान व्यक्ति मुझको तथा सदा रहने वाले अर्थात् पुरातन जन्म न लेने वाले सर्व लोकों के महान ईश्वर अर्थात् सर्वोंच्च परमेश्वर को जानता है वह शास्त्रों को सही जानने वाला अर्थात् वेदों के अनुसार ज्ञान रखने वाला मनुष्यों में ज्ञानवान अर्थात् तत्वदर्शी विद्वान् तत्वज्ञान के आधार से सत्य साधना करके सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है वही व्यक्ति पापों के विषय में विस्तृत वर्णन के साथ कहता है अर्थात् वही सृष्टि ज्ञान व कर्मों का सही वर्णन करता है अर्थात् अज्ञान से पूर्ण रूप से मुक्त कर देता है।
Chapter 11
- Chapter 11 Verse 32 - लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय इन लोकोंको नष्ट करने के लिये प्रकट हुआ हूँ इसलिये जो प्रतिपक्षियोंकी सेनामें स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायेगा।
- Chapter 11 Verse 48 - हे अर्जुन! मनुष्यलोकमें इस प्रकार विश्वरूपवाला मैं न वेद अध्ययनसे, न यज्ञों से न दानसे न क्रियाओंसे और न उग्र तपोंसे ही तेरे अतिरिक्त दूसरेके द्वारा देखा जा सकता हूँ।
- Chapter 11 Verse 53 - जिस प्रकार तुमने मुझको चतुर्भुज रूप में देखा है इस प्रकार मैं न वेदोंसे न तपसे न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।
- Chapter 11 Verse 54 - परंतु हे परन्तप अर्जुन! अनन्यभक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूप में मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्वसे जाननेके लिये तथा मेरे काल-जाल में भली-भाँति प्रवेश करनेके लिए शक्य हूँ अर्थात् शुलभ हूँ।
Chapter 13
- Chapter 13 verse 13 - वह सब ओर हाथ-पैरवाला सब ओर नेत्र सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है। क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।
- Chapter 13 verse 14 - सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्तिरहित होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और निर्गुण होनेपर भी गुणोंको भोगनेवाला है।
- Chapter 13 verse 17 - वह पूर्णब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायाधारी काल से अन्य कहा जाता है वह परमात्मा बोधस्वरूप जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबकेहृदयमें विशेषरूपसे स्थित है।
Chapter 14
- Chapter 14 Verse 3 - हे अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति अर्थात् दुर्गा तो सम्पूर्ण प्राणियोंकी योनि है अर्थात् गर्भाधानका स्थान है और मैं ब्रह्म-काल उस योनिमें गर्भको स्थापन करता हूँ उस संयोगसे सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
- Chapter 14 Verse 4 - हे अर्जुन! सब योनियोंमें जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, मूल प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करनेवाली माता है और मैं बीजको स्थापन करनेवाला पिता हूँ।
- Chapter 14 Verse 5 - हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ये प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्माको शरीरमें बाँधते हैं।
Chapter 15
- Chapter 15 verse 1 - ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला अविनाशी विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, जिसके जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व पत्ते कहे हैं उस संसाररूप वृक्षको जो इसे विस्तार से जानता है वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
- Chapter 15 verse 2 - उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव जीवको कर्मोंमें बाँधने की जड़ें मुख्य कारण हैं तथा मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में व्यवस्थित किए हुए हैं।
- Chapter 15 verse 3 - इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर।
- Chapter 15 verse 4 - इसके पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद अर्थात् सतलोक को भलीभाँति खोजना चाहिए जिसमें गये हुए साधक फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परम अक्षर ब्रह्म से आदि रचना-सृष्टि उत्पन्न हुई है उस सनातन पूर्ण परमात्मा की ही मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।
- Chapter 15 verse 16 - इस संसारमें दो प्रकारके भगवान हैं नाशवान् और अविनाशी इसी प्रकार इन दोनों लोकों में सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।
- Chapter 15 Verse 17 - उत्तम भगवान तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से अन्य ही है जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर परमात्मा इस प्रकार कहा गया है।
Chapter 16
- Chapter 16 Verse 23 - जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धिका प्राप्त होता है न परम गतिको और न सुखको ही।
- Chapter 16 Verse 24 - इससे तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है इसे जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करने योग्य है।
Chapter 17
- Chapter 17 verse 4 - सात्विक पुरुष श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी आदि देवताओं को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं तथा मुख्य रूप से श्री शिव जी को भी इष्ट मानते हैं।
- Chapter 17 verse 5 - जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन माना घोर तपको तपते हैं तथा पाखण्ड और अहंकारसे युक्त एवं कामना के आसक्ति और भक्ति बलके अभिमानसे भी युक्त हैं।
- Chapter 17 verse 6 - शरीर में रहने वाले प्राणियों के मुखिया - ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा गणेश व प्रकृृति को व मुझे तथा इसी प्रकार शरीर के हृदय कमल में जीव के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को परेशान करने वाले उनको अज्ञानियोंको राक्षसस्वभाववाले ही जान।
- Chapter 17 verse 23 - ॐ मन्त्र ब्रह्म का, तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का, सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है, ऐसे यह तीन प्रकार के पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का आदेश कहा है और सृष्टिके आदिकाल में विद्वानों ने उसी तत्वज्ञान के आधार से वेद तथा यज्ञादि रचे। उसी आधार से साधना करते थे।
- Chapter 17 verse 24 - इसलिये भगवान की स्तुति करनेवालों तथा शास्त्रविधिसे नियत क्रियाऐं बताने वालों की यज्ञ, दान और तप व स्मरण क्रियाएँ सदा ‘ऊँ‘ इस नामको उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ओं से ही स्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है।
- Chapter 17 verse 25 - अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्र के जाप पर स्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा फलको न चाहकर नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं अर्थात् यह तत जाप ‘‘सोहं‘‘ मन्त्र है जो परब्रह्म का जाप मन्त्र है और सतनाम के स्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्र पर स्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है।
- Chapter 17 verse 26 - ‘सत्‘ यह सारनाम तत् मन्त्र के अन्त में इसी पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ सत्यभावमें और श्रेष्ठभावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें ही सत् शब्द अर्थात् सारनाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ओं व तत् के अन्त में जोड़ा जाता है।
- Chapter 17 verse 27 - तथा यज्ञ तप और दानमें जो स्थिति है भी ‘सत्‘ इस प्रकार कही जाती हे और उस परमात्माके लिये किए हुए शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में ही वास्तव में सत् शब्द के अन्त में कोई अन्य शब्द तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेब, सतगुरू, सत् पुरूष, सतलोक, सतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं।
- Chapter 17 verse 28 - हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त ‘असत्‘ अर्थात् व्यर्थ है इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह हमारे लिए न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही।
Chapter 18
- Chapter 18 verse 46 - जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह माया रूप समस्त जगत् व्याप्त है उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा अर्थात् हठ योग न करके सांसारिक कार्य करता हुआ पूजा करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
- Chapter 18 verse 62 - हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपा से ही तू परम शान्तिको तथा सदा रहने वाला सत स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को प्राप्त होगा।
- Chapter 18 verse 63 - इस प्रकार गोपनीयसे अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया इस रहस्ययुक्त ज्ञानको पूर्णतया भलीभाँति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर।
- Chapter 18 verse 64 - सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त हितकारक वचन तुझे फिर कहूँगा इसे सुन यह पूर्ण ब्रह्म मेरा पक्का निश्चित इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव है।
- Chapter 18 verse 65 - एक मनवाला मेरा मतानुसार भक्त हो मतानुसार मेरा पूजन करनेवाला मुझको प्रणाम कर। मुझे ही प्राप्त होगा तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ मेरा अत्यन्त प्रिय है।
- Chapter 18 verse 66 - गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि मेरी सम्पूर्ण पूजाओंको मुझ में त्यागकर तू केवल एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरणमें जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़वा दूँगा तू शोक मत कर।
Chapter 2
The knowledge giver god of Bhagavad Gita says that he too is in the cycle of birth and death whereas the immortal god is someone else.
Chapter 2 verse 12
Chapter 2 Verse 17
Chapter 3
Chapter 3 Verse 12
Chapter 3 Verse 13
Chapter 4
Chapter 4 verse 5
Chapter 4 verse 9
Chapter 4 verse 32
Chapter 4 verse 34
Chapter 6
Chapter 6 Verse 16
Chapter 7
Chapter 7 Verse 12
Chapter 7 Verse 13
Chapter 7 Verse 14
Chapter 7 Verse 15
Chapter 7 Verse 16
Chapter 7 Verse 17
Chapter 7 Verse 18
Chapter 7 Verse 19
Chapter 7 Verse 20
Chapter 7 Verse 21
Chapter 7 Verse 22
Chapter 7 Verse 23
Chapter 7 Verse 24
Chapter 7 Verse 25
Chapter 7 Verse 29
Chapter 8
Chapter 8 verse 1
Chapter 8 verse 3
Chapter 8 verse 5
Chapter 8 verse 6
Chapter 8 verse 7
Chapter 8 verse 8
Chapter 8 verse 9
Chapter 8 verse 10
Chapter 8 verse 11
Chapter 8 verse 12
Chapter 8 verse 13
Chapter 8 verse 14
Chapter 8 verse 16
Chapter 8 verse 17
Chapter 8 verse 18
Chapter 8 verse 19
Chapter 8 verse 20
Chapter 8 verse 21
Chapter 8 verse 22
Chapter 9
Chapter 9 Verse 23
Chapter 9 Verse 25
Chapter 9 Verse 34
Chapter 10
Chapter 10 Verse 2
Chapter 10 Verse 3
Chapter 11
Chapter 11 Verse 32
Chapter 11 Verse 48
Chapter 11 Verse 53
Chapter 11 Verse 54
Chapter 13
Chapter 13 Verse 13
Chapter 13 Verse 14
Chapter 13 Verse 17
Chapter 14
Chapter 14 Verse 3
Chapter 14 Verse 4
Chapter 14 Verse 5
Chapter 15
Chapter 15 Verse 1
Chapter 15 Verse 2
Chapter 15 Verse 3
Chapter 15 Verse 4
Chapter 15 Verse 16
Chapter 15 Verse 17
Chapter 16
Chapter 16 Verse 23
Chapter 16 Verse 24
Chapter 17
Chapter 17 Verse 4
Chapter 17 Verse 5
Chapter 17 Verse 6
Chapter 17 Verse 23
Chapter 17 Verse 24
Chapter 17 Verse 25
Chapter 17 Verse 26
Chapter 18
Chapter 18 Verse 46
Chapter 18 Verse 62
Chapter 18 Verse 63
Chapter 18 Verse 64
Chapter 18 Verse 65
Chapter 18 Verse 66
Supreme God in Bhagavad Gita Bhagavad Gita Chapter 1
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