Ugra Gita | उग्र गीता
उग्र गीता | Ugra Gita - Kabir Sagar
God Kabir has given the knowledge of Bhagavad Gita in his speech via means of couplets. Ugr Gita is the dialogue on knowledge of Bhagavad Gita between Sant Dharamdas Ji and Supreme God Kabir. This knowledge of Gita is present in Kabir Sagar and is known as Ugr Gita (or Ugar Gita and also Ugra Gita)
धर्मदास का गीता का पाठ अनुवाद सहित सुनाना (उग्र गीता)
धर्मदास जी को ज्ञान था कि जिन्दा वेशधारी मुसलमान संत होते हैं जबकि मुसलमान नहीं मानते कि पुनर्जन्म होता है। इसलिए पहले उसी प्रकरण वाले श्लोक सुनाए। (गीता अध्याय 2 श्लोक 12 व 17, अध्याय 4 श्लोक 5 व 9)
हे अर्जुन आपन जन्म-मरण बहुतेरे। तुम ना जानत याद है मेरे।।
नाश रहित प्रभु कोई और रहाई। जाको कोई मार सकता नाहीं।।
फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 सुनाए:-
अर्जुन मन जो शंका आई। कृष्ण से पूछा विनय लाई।।
हे कृष्ण तुम तत् ब्रह्म बताया। अध्यात्म अधिभूत जनाया।।
वाका भेद बताओ दाता। मन्द मति हूँ देवो ज्ञान विधाता।। (गीता अ. 8 श्लोक 1-2)
कृष्ण अस बोले बानी। दिव्य पुरूष की महिमा बखानी।।
तत् ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म कहाया। जिन सब ब्रह्माण्ड बनाया।।
मम भक्ति करो मोकूं पाई। यामै कछु संशय नाहीं।। (गीता अ. 8 श्लोक 5, 7)
जहाँ आशा तहाँ बाशा होई। मन कर्म बचन सुमरियो सोई।। (गीता अ. 8 श्लोक 6)
जोहै सनातन अविनाशी भगवाना। वाकि भक्ति करै वा पर जाना।।
जैसे सूरज चमके आसमाना। ऐसे सत्यपुरूष सत्यलोक रहाना।।
वाकी भक्ति करे वाको पावै। बहुर नहीं जग में आवै।। (गीता अ. 8 श्लोक 8-9-10)
मम मंत्र है ओम् अकेला। (गीता अ. 8 श्लोक 13)
ताका ओम् तत् सत् दूहेला।। (गीता अ. 17 श्लोक 23)
तुम अर्जुन जावो वाकी शरणा। सो है परमेश्वर तारण तरणा।। (गीता अ. 18 श्लोक 62, 66)
वाका भेद परम संत से जानो। तत ज्ञान में है प्रमाणो।। (गीता अ. 4 श्लोक 34)
वह ज्ञान वह बोलै आपा। ताते मोक्ष पूर्ण हो जाता।। (गीता अ. 4 श्लोक 32)
सब पाप नाश हो जाई। बहुर नहीं जन्म-मरण में आई।।
मिले संत कोई तत्त्वज्ञानी। फिर वह पद खोजो सहिदानी।।
जहाँ जाय कोई लौट न आया। जिन यह संसार वृक्ष निर्माया।। (गीता अ. 15 श्लोक 4)
अब अर्जुन लेहू विचारी। कथ दीन्ही गीता सारी।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)
गुप्त भेद बताया सारा। तू है मोकूं आजीज पियारा।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)
अति गुप्त से गुप्त भेद और बताऊँ। मैं भी ताको इष्ट मनाऊँ।। (गीता अ. 18 श्लोक 64)
जे तू रहना मेरी शरणा। कबहु ना मिट है जन्म रू मरणा।।
नमस्कार कर मोहे सिर नाई। मेरे पास रहेगा भाई।। (गीता अ. 18 श्लोक 65)
बेसक जा तू वाकी शरणा। मम धर्म पूजा मोकूं धरणा।।
फिर ना मैं तू कूं कबहूं रोकूं। ना मन अपने कर तू शोकूं।। (गीता अ. 18 श्लोक 66)
और अनेक श्लोक सुनाया। सुन जिन्द एक प्रश्न उठाया।।
जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन
हे वैष्णव! तव कौन भगवाना। काको यह गीता बखाना।।
धर्मदास वचन
राम कृष्ण विष्णु अवतारा। विष्णु कृष्ण है भगवान हमारा।।
श्री कृष्ण गीता बखाना। एक एक श्लोक है प्रमाणा।।
जे तुम चाहो मोक्ष कराना। भक्ति करो अविनाशी भगवाना।।
विष्णु का कबहु नाश न होई। सब जगत के कर्ता सोई।।
तीर्थ वरत करूँ मन लावो। पिण्ड दान और श्राद्ध करावो।।
यह पूजा है मुक्ति मार्ग। और सब चले कुमार्ग।।
जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन
जै गीता विष्णु रूप में कृष्ण सुनाया। कह कई बार मैं नाश में आया।।1।।
अविनाशी है कोई और विधाता। जो उत्तम परमात्मा कहाता।।2।।
वह ज्ञान मोकूं नाहीं। वाको पूछो संत शरणाई।।3।।
अविनाशी की शरण में जाओ। पुनि नहीं जन्म-मरण में आओ।।4।।
मैं भी इष्ट रूप ताही पूजा। अविनाशी कोई है मोते दूजा।।5।।
मम भक्ति मंत्र ओम् अकेला। वाका ओम् तत् सत् दुहेला।।6।।
मैं तोकूं पूछूं गोसांई। तेरे भगवान मरण के माहीं।।7।।
हम भक्ति वाकी चाहैं। जो नहीं जन्म-मरण में आहै।।8।।
जे तुम पास वह मंत्र होई। तो मैं पक्का चेला होई।।9।।
यही बात एक संत सुनाई। राम कृष्ण सब मरण के माहीं।।10।।
अविनाशी कोई और दाता। वाकी भक्ति मैं बताता।।11।।
वो कह में वाही लोक से आया। मैं ही हूँ वह अविगत राया।।12।।
आज तुम गीता में फरमाया। फिर तो वह संत साच कहाया।।13।।
हे वैष्णव! तुम भी धोखे माहीं। बर्था आपन जन्म नशाहीं।।14।।
जो तू चाहो भवसागर तिरणा। जा के गहो वाकी शरणा।।15।।
कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को गीता से ही प्रश्न तथा उत्तर देकर सत्य ज्ञान समझाया। उपरोक्त वाणी सँख्या 1 में गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 वाला वर्णन बताया जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। वाणी सँख्या 2 में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 3 में गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला ज्ञान बताया है। वाणी सँख्या 4 में गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 66 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 5 में गीता अध्याय 18 श्लोक 64 का वर्णन है जिसमें काल कहता है कि मेरा ईष्ट देव भी वही है। वाणी सँख्या 6 में गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा अध्याय 17 श्लोक 23 वाला ज्ञान है। आगे की वाणियों में कबीर परमेश्वर जी ने अपने आपको छुपाकर अपने ही विषय में बताया है।
धर्मदास वचन
विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना। जिन्द निन्दा कर हो नादाना।।
पाप शीश तोहे लागे भारी। देवी देवतन को देत हो गारि।।
जिन्दा (कबीर जी) वचन
जे यह निन्दा है भाई। यह तो तोर गीता बतलाई।। गीता लिखा तुम मानो साचा। अमर विष्णु है कहा लिख राखा।। तुम पत्थर को राम बताओ। लडूवन का भोग लगाओ।। कबहु लड्डू खाया पत्थर देवा। या काजू किशमिश पिस्ता मेवा।। पत्थर पूज पत्थर हो गए भाई। आखें देख भी मानत नाहीं।। ऐसे गुरू मिले अन्याई। जिन मूर्ति पूजा रीत चलाई।। इतना कह जिन्द हुए अदेखा। धर्मदास मन किया विवेका।।
धर्मदास वचन
यह क्या चेटक बिता भगवन। कैसे मिटे आवा गमन।। गीता फिर देखन लागा। वही वृतान्त आगे आगा।। एक एक श्लोक पढ़ै और रौवै। सिर चक्रावै जागै न सोवै।। रात पड़ी तब न आरती कीन्हा। झूठी भक्ति में मन दीन्हा।। ना मारा ना जीवित छोड़ा। अधपका बना जस फोड़ा।। यह साधु जे फिर मिल जावै। सब मानू जो कछु बतावै।। भूल के विवाद करूं नहीं कोई। आधीनी से सब जानु सोई।। उठ सवेरे भोजन लगा बनाने। लकड़ी चुल्हा बीच जलाने।। जब लकड़ी जलकर छोटी होई। पाछलो भाग में देखा अनर्थ जोई।। चटक-चटक कर चींटी मरि हैं। अण्डन सहित अग्न में जर हैं।। तुरंत आग बुझाई धर्मदासा। पाप देख भए उदासा।। ना अन्न खाऊँ न पानी पीऊँ। इतना पाप कर कैसे जीऊँ।। कराऊँ भोजन संत कोई पावै। अपना पाप उतर सब जावै।। लेकर थार चले धर्मनि नागर। वृक्ष तले बैठे सुख सागर।। साधु भेष कोई और बनाया। धर्मदास साधु नेड़े आया।। रूप और पहचान न पाया। थाल रखकर अर्ज लगाया।। भोजन करो संत भोग लगाओ। मेरी इच्छा पूर्ण कराओ।। संत कह आओ धर्मदासा। भूख लगी है मोहे खासा।। जल का छींटा भोजन पे मारा। चींटी जीवित हुई थाली कारा।। तब ही रूप बनाया वाही। धर्मदास देखत लज्जाई।। कहै जिन्दा तुम महा अपराधी। मारे चीटी भोजन में रांधी।। चरण पकड़ धर्मनि रोया। भूल में जीवन जिन्दा मैं खोया।। जो तुम कहो मैं मानूं सबही। वाद विवाद अब नहीं करही।। और कुछ ज्ञान अगम सुनाओ। कहां वह संत वाका भेद बताओ।।
जिन्द (कबीर) वचन
तुम पिण्ड भरो और श्राद्ध कराओ। गीता पाठ सदा चित लाओ।। भूत पूजो बनोगे भूता। पितर पूजै पितर हुता।। देव पूज देव लोक जाओ। मम पूजा से मोकूं पाओ।। यह गीता में काल बतावै। जाकूं तुम आपन इष्ट बतावै।। (गीता अ. 9/25)
इष्ट कह करै नहीं जैसे। सेठ जी मुक्ति पाओ कैसे।।
धर्मदास वचन
हम हैं भक्ति के भूखे। गुरू बताए मार्ग कभी नहीं चुके।। हम का जाने गलत और ठीका। अब वह ज्ञान लगत है फीका।। तोरा ज्ञान महा बल जोरा। अज्ञान अंधेरा मिटै है मोरा।। हे जिन्दा तुम मोरे राम समाना। और विचार कुछ सुनाओ ज्ञाना।।
जिन्द (कबीर) वचन
मार्कण्डे एक पुराण बताई। वामें एक कथा सुनाई।। रूची ऋषी वेद को ज्ञानी। मोक्ष मुक्ति मन में ठानी।। मोक्ष की लगन ऐसी लगाई। न कोई आश्रम न बीवाह सगाई।। दिन एक पितर सामने आए। उन मिल ये वचन फरमाए।। बेटा रूची हम महा दुःख पाए। क्यों नहीं हमरे श्राद्ध कराए।। रूची कह सुनो प्राण पियारो। मैं बेद पढ़ा और ज्ञान विचारो।। बेद में कर्मकाण्ड अविद्या बताई। श्राद्ध करे पितर बन जाई।। ताते मैं मोक्ष की ठानी। वेद ज्ञान सदा प्रमानी।। पिता, अरू तीनों दादा। चारों पंडित नहीं बेद विधि अराधा।। तातें भूत योनि पाया। अब पुत्र को आ भ्रमाया।। कहें पितर बात तोरी सत है। वेदों में कर्मकाण्ड अविद्या कथ है।। तुम तो मोक्ष मार्ग लागे। हम महादुःखी फिरें अभागे।। विवाह कराओ अरू श्राद्ध कराओ। हमरा जीवन सुखी बनाओ।। रूची कह तुम तो डूबे भवजल माहीं। अब मोहे वामें रहे धकाई।। चतवारिस (40) वर्ष आयु बड़ेरी। अब कौन करै सगाई मेरी।। पितर पतन करवाया आपन। लगे रूची को थापना थापन।। विचार करो धर्मनी नागर। पीतर कहें वेद है सत्य ज्ञान सागर।। वेद विरूद्ध आप भक्ति कराई। तातें पितर जूनी पाई।। रूची विवाह करवाकर श्राद्ध करवाया। करा करवाया सबै नाशाया।। यह सब काल जाल है भाई। बिन सतगुरू कोई बच है नाहीं।। या तो बेद पुराण कहो है झूठे। या पुनि तुमरे गुरू हैं पूठे।। शास्त्र विरूद्ध जो ज्ञान बतावै। आपन बूडै शिष डूबावै।। डूब मरै वो ले चुलु भर पाणी। जिन्ह जाना नहीं सारंगपाणी।।
दोहा:– सारंग कहें धनुष, पाणी है हाथा। सार शब्द सारंग है और सब झूठी बाता।। सारंगपाणी काशी आया। अपना नाम कबीर बताया।। हम तो उनके चेले आही। गरू क्या होगा समझो भाई।।
धर्मदास वचन
जिन्दा एक अचरज है मोकूं। तुर्क धर्म और वेद पुराण ज्ञान है ताकूं।। तुम इंसान नाहीं होई। हो अजब फरिश्ता कोई।। और ज्ञान मोहे बताओ। युगों युगों की कथा सुनाओ।।
जिन्दा (कबीर) वचन
सुनो धर्मनि सृष्टि रचना। सत्य कहूँ नहीं यह कल्पना।। जब हम जगत रचना बताई। धर्मदास को अचरज अधिकाई।।
धर्मदास बचन
यह ज्ञान अजीब सुनायो। तुम को यह किन बतायो।। कहाँ से बोलत हो ऐसी बाता। जानो तुम आप विधाता।। विधाता तो निराकार बताया। तुम को कैसे मानु राया।। तुम जो लोक मोहे बतायो। सृष्टि की रचना सुनायो।। आँखों देखूं मन धरै धीरा। देखूं कहा रहत प्रभु अमर शरीरा।। (तब हम गुप्त पुनै छिपाई। धर्मदास को मूर्छा आई।।)
Bhagavad Gita Chapter 18 Bhagavad Gita Saar - Hindi
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