Sultan Ibrahim Adham - Garib Das Ji Speech
Who was the Guru of Sultan Ibrahim Adham
Sultan Ibrahim Adham, the legendary king of Balkh who renounced his throne to embrace a life of spiritual devotion, is often associated with profound transformation through divine guidance. According to a lesser-known but deeply spiritual perspective, his Guru was Kabir Sahib, the eternal Satguru, who is believed to have been present during that era disguised as a living saint (Zinda Mahatma). Kabir Sahib, revered for imparting true knowledge about the Supreme God, is said to have played a pivotal role in awakening Sultan Ibrahim’s soul to the futility of worldly pleasures and the eternal truth of God-realization. This divine intervention led the Sultan to abandon his royal comforts and embrace the path of renunciation and devotion.
Under Kabir Sahib’s guidance, Sultan Ibrahim gained an understanding of the supreme spiritual wisdom, which transcended ritualistic practices and emphasized direct communion with God. Kabir Sahib, known for his revolutionary teachings that transcended religious boundaries, revealed to Sultan Ibrahim the mysteries of creation, the reality of Kaal, and the path to salvation. The Sultan’s subsequent life as a mystic reflects the profound impact of Kabir Sahib’s teachings, as he dedicated himself to spreading the message of unity, love, and surrender to the true God. This narrative highlights the eternal presence of Kabir Sahib as the guide and savior of sincere seekers across all eras.
Sant Garib Das Ji Maharaj has given a detalied account of Sultan Ibrahim Adham in his bani. He has described all the events about how Ibrahim Adham took refuge of God Kabir.
Read full account of Sultan Ibrahm Adham
Gyan Parichay - Garib Das Granth Sahib 488 - 490
The speech below is an account of Sultan Ibrahim Adham in Sat Granth Sahib from speech number 17 onwards. The speeches are as follows
अमर लोक से सतगुरू आए, रूप धरा करवांना।
ढूँढ़त ऊँट महल पर डोलैं, बूझत शाह ब्याना।।(टेक)
हम कारवान होय आये। महलौं पर ऊंट बताये।।(1)
बोलैं पादशाह सुलताना। तूं रहता कहां दिवाना।।(2)
दूजैं कासिद गवन किया रे। डेरा महल सराय लिया रे।।(3)
जब हम महल सराय बताई। सुलतानी कूं तांवर आई।।(4)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। ये बसे सराय में गीदी।।(5)
ऐसैं ही तूं चलि जाई। यौं हम महल सराय बताई।।(6)
अरे कोई कासिद कूं गहि ल्यावै। इस पंडित खांनंे द्यावै।।(7)
ऊठे पादशाह सुलताना। वहां कासिद गैब छिपाना।।(8)
तीजै बांदी होय सेज बिछाई। तन तीन कोरडे़ खाई।।(9)
तब आया अनहद हांसा। सुलतानी गहे खवासा।।(10)
मैं एक घड़ी सेजां सोई। तातैं मेरा योह हवाल होई।।(11)
जो सोवैं दिवस रू राता। तिन का क्या हाल बिधाता।।(12)
तब गैबी भये खवासा। सुलतानी हुये उदासा।।(13)
यौह कौन छलावा भाई। याका कछु भेद न पाई।।(14)
चैथे जोगी भये हम जिन्दा। लीन्हें तीन कुत्ते गलि फंदा।।(15)
दीन्ही हम सांकल डारी। सुलतानी चले बाग बाड़ी।।(16)
बोले पातशाह सुलताना। कहां सैं आये जिन्द दिवाना।।(17)
ये तीन कुत्ते क्या कीजै। इनमंे सैं दोय हम कूं दीजै।।(18)
अरे तेरे बाप दादा है भाई। इन बड़ बदफैल कमाई।।(19)
यहां लोह लंगर शीश लगाई। तब कुत्यौं धूम मचाई।।(20)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। तूं समझै क्यूं नहीं गीदी।।(21)
अब तुम तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढने कूं शूली।।(22)
जोगी जिन्दा गैब भया रे। हम ना कछु भेद लह्या रे।।(23)
बोले पादशाह सुलताना। जहां खड़े अमीर दिवाना।।(24)
येह च्यार चरित्रा बीते। हम ना कछु भेद न लीते।।(25)
वहां हम मार्या ज्ञान गिलोला। सुलतानी मुख नहीं बोला।।(26)
तब लगे ज्ञान के बानां। छाड़ी बेगम माल खजाना।।(27)
सुलतानी जोग लिया रे। सतगुरु उपदेश दिया रे।।(28)
छाड्या ठारा लाख तुरा रे। जिसे लाग्या माल बुरा रे।।(29)
छाड़े गज गैंवर जल हौडा। अब भये बाट के रोड़ा।।(30)
संग सोलह सहंस सुहेली। एक सें एक अधिक नवेली।।(31)
गरीब, अठारह लाख तुरा जिन छोड़े, पद्यमनी सोलह सहंस।
एक पलक में त्याग गए, सो सतगुरू के हैं हंस।।(32)
रांडी-ढ़ांडी ना तजैं, ये नर कहिए काग।
बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।(33)
छाड़े मीर खान दीवाना, अरबों खरब खजाना।।(34)
छाडे़ हीरे हिरंबर लाला। सुलतानी मोटे ताला।।(35)
जिन लोक पर्गंणा त्यागा। सुनि शब्द अनाहद लाग्या।।(36)
पगड़ी की कौपीन बनाई। शालौं की अलफी लाई।।(37)
शीश किया मुंह कारा। सुलतानी तज्या बुखारा।।(38)
गण गंधर्व इन्द्र लरजे। धन्य मात पिता जिन सिरजे।।(39)
भया सप्तपुरी पर शांका। सुलतानी मारग बांका।।(40)
जिन पांचैं पकड़ि पछाड्या। इनका तो दे दिया बाड़ा।।(41)
सुनि शब्द अनाहद राता। जहां काल कर्म नहीं जाता।।(42)
नहीं कच्छ मच्छ कुरंभा। जहां धौल धरणि नहीं थंभा।।(43)
नहीं चंद्र सूर जहां तारा। नहीं धौल धरणि गैंनारा।।(44)
नहीं शेष महेश गणेशा। नहीं गौरा शारद भेषा।।(45)
जहां ब्रह्मा बिष्णु न बानी। नहीं नारद शारद जानी।।(46)
जहां नहीं रावण नहीं रामा। नहीं माया का बिश्रामा।।(47)
जहां परसुराम नहीं पर्चा। नहीं बलि बावन की चर्चा।।(48)
नहीं कंस कान्ह कर्तारा। नहीं गोपी ग्वाल पसारा।।(49)
यौंह आँवन जान बखेड़ा। यहाँ कौंन बसावै खेड़ा।।(50)
जहाँ नौ दशमा नहीं भाई। दूजे कूं ठाहर नाँही।।(51)
जहां नहीं आचार बिचारा। ना कोई शालिग पूजनहारा।।(52)
बेद कुराँन न पंडित काजी। जहाँ काल कर्म नहीं बाजी।।(53)
नहीं हिन्दू मुसलमाना। कुछ राम न दुवा सलामा।।(54)
जहाँ पाती पान न पूजा। कोई देव नहीं है दूजा।।(55)
जहाँ देवल धाम न देही। चीन्ह्यो क्यूं ना शब्द सनेही।।(56)
नहीं पिण्ड प्राण जहां श्वासा। नहीं मेर कुमेर कैलासा।।(57)
नहीं सत्ययुग द्वापर त्रोता। कहूं कलियुग कारण केता।।(58)
यौह तो अंजन ज्ञान सफा रे। देखो दीदार नफा रे।।(59)
निःबीज सत निरंजन लोई। जल थल में रमता सोई।।(60)
निर्भय निरगुण बीना। सोई शब्दअतीतं चीन्हा।।(61)
अडोल अबोल अनाथा। नहीं देख्या आवत जाता।।(62)
हैं अगम अनाहद सिंधा। जोगी निरगुण निरबंधा।।(63)
कछु वार पार नहीं थाहं। सतगुरु सब शाहनपति शाहं।।(64)
उलटि पंथ खोज है मीना। सतगुरु कबीर भेद कहैं बीना।।(65)
यौह सिंधु अथाह अनूपं। कछु ना छाया ना धूपं।।(66)
जहां गगन धूनि दरबानी। जहां बाजैं सत्य सहिदानी।।(67)
सुलतान अधम जहां राता। तहां नहीं पांच तत का गाता।।(68)
जहां निरगुण नूर दिवाला। कछु न घर है खाला।।(69)
शीश चढाय पग धरिया। यौह सुलतानी सौदा करिया।।(70)
सतगुरु जिन्दा जोग दिया रे। सुलतानी अपन किया रे।।(71)
कहैं दास गरीब गुरु पूरा। सतगुरु मिले कबीरा।।(72)
This composition appears to narrate a profound spiritual interaction between a Satguru (True Guru) and a Sultan, using metaphorical language to convey deep philosophical and spiritual teachings.